
रंगनाथ
नामवर जी ने “छाती पर मूँग दलने” के लिए क्या कहा, कुछ लोगों ने सीने पर चकरी ही बांध ली। अब ऊपर लगी तस्वीर को ही देखिए, इसे देखकर कई लोगों की छाती फट रही है। पिछले साल 90 के होने पर Indira Gandhi National Centre for the Arts ने एक कार्यक्रम आयोजित किया। आईजीएनसीए ने आज तक जो नहीं किया था अब इसलिए नहीं किया कि उसे नामवर से प्यार हो गया था। इसीलिए क्योंकि हिन्दी पत्रकार रामबहादुर राय को वहाँ का प्रमुख बनाया गया था। इससे पहले तो आईजीएनसीए अंग्रेजी का अंग्रेजी के लिए और अंग्रेजी से रहा है। राय दक्षिणपंथी पत्रकार हैं लेकिन वामपंथी नामवर के मुरीद हैं। कार्यक्रम में राजनाथ सिंह और महेश शर्मा आए थे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी को बुलाया गया था या नहीं पता नहीं। नामवर को “कांस्य स्मृति चिह्न” दिया गया। नामवर ने कार्यक्रम में कहा कि आलोचक सरकार और सत्ता का प्रतिपक्ष होता है। उन्होंने ये भी कहा कि वो अभी 10 साल और जीना चाहते हैं और कुछ लोगों की छाती पर मूँग दलना चाहते हैं। उस वक्त माना गया कि नामवर ने कार्यक्रम में आए बीजेपी नेताओं पर व्यंग्य बाण छोड़ा है। लेकिन अपने सीने पर चकरी किसने बांधी? खैर, बहुतों ने बांधी है। बकौल नामवर कीचड़ का जवाब देने से कीचड़ बढ़ता है। इसलिए इस प्रंसग को यही छोड़ता हूँ।
आईजीएनसीए 28 जुलाई 2016 कार्यक्रम के बाद से ही बीजेपी नेता और नरेंद्र मोदी कैबिनेट के मंत्रियों राजनाथ सिंह और महेश शर्मा के साथ नामवर सिंह की तस्वीर को “चरित्र प्रमाणपत्र” की तरह घुमाया-दिखाया-बताया जा रहा है। इस तस्वीर को देखकर किसी भाजपाई या संघी की छाती फेसबुक पर फटी हो मुझे याद नहीं। जीवन भर वामपंथी के रूप में चर्चित रहे आलोचक को दो भाजपाई मंत्रियों ने एक प्रतिमा दे दी तो नामवर संघी हो गए लेकिन दोनों बीजेपी नेताओं का धर्म नहीं गया। धर्म गया उनका जो कहते हैं धर्म एक अफीम है। अब अफीमचियों पर मैं क्या लिखूँ….
मेरे जाने में नामवर सिंह ने अब तक कोई गैर-साहित्यिक सरकारी या प्राइवेट पुरस्कार नहीं लिया है। दिल्ली के साधारण इलाके में चार कमरे के फ्लैट में रहते हैं जो कुछ दशकों पहले उन्होंने जेएनयू में प्रोफेसर रहते खरीदा था। तब तो वो इलाका बाहरी अलंग ही माना जाता था। नामवर के खिलाफ लाठी को तेल पिलाते रहने वाले किसी भी शूरवीर ने अभी तक ये ब्रेकिंग न्यूज नहीं दी है कि नामवर ने फलाँ जगह फलाँ जमीन-जायदाद बनाई है। नामवर ने अब तक कोई ऐसी “नौकरी” या “पद” भी नहीं लिया है जिसके वो काबिल नहीं थे। वो कुलाधिपति भी मनोनित हुए तो देश के पहले हिन्दी विश्वविद्यालय के। वो कभी किसी यूनिवर्सिटी के वीसी नहीं रहे जिसके पास असली पॉवर होती है। लेकिन नामवर की ये तस्वीर देखकर उन लोगों की भी छाती फट रही है जिन्होंने कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो भी या बस वही, पढ़ा है या नहीं, पता नहीं।
“विचारधारा” बड़ी चीज है। कम से कम फेसबुक के नुक्कड़ पर दूसरे रैकेट के गुर्गों से दो-दो हाथ करने से बड़ी चीज। धारा में उतरने से पहले “विचार” करने और रखने की जरूरत होती है। विचार साहित्यिक आयोजन रूपी प्रहसनों में विचरण और कविता-संकलनों के “मंत्रोच्चारण” से नहीं बनते। कविता और कहानी के अलावा बहुत कुछ पढ़ना पड़ता है। जीना पड़ता है। सांसरिक और बौद्धिक मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ता है। और ऐसे संघर्ष करने वाले जानते हैं कि बर्डे पार्टी में आने-जाने, मेमेंटो देने सो कोई संघी या कम्युनिस्ट नहीं हो जाता। और न ही किसी आईएएस की कविता की तारीफ कर देने या हिन्दी विभाग में तोताराम की जगह सुग्गाराम की नियुक्ति कर देने से किसी के जीवन भर का बौद्धिक योगदान खत्म हो जाता है। अपनी “सहूलियतों”, “आदतों” और “आस्वाद” के अनुरूप जीवन जीने वाले कभी नहीं समझेंगे (और शायद नहीं पढ़ेंगे) कि लेनिन ने बौद्धिक लिंचिंग करने वालों से तोल्सतोय का बचाव क्यों किया था। संबंधों से जिनके हाथ बंध जाते हैं वो वंचितों, पीड़ितों और दलितों के बंधन खोलेंगे, इसकी कल्पना कोई कवि भले कर ले, “हमलोग” नहीं करते।
चूँकि नामवर जी (और मैं भी) कविता प्रेमी हैं इसलिए अंत में शाद के इस शेर के साथ बात खत्म करूँगा कि –
गुंचों के मुस्कराने पर हँस के कहते हैं फूल
अपना ख्याल करो, हमारी तो कट गई
(इस लेख के मूल संस्करण में नामवर सिंह के फ्लैट को दो कमरे का बताया गया था। अमितेश कुमार द्वारा मिली सूचना के आधार पर दो कमरे को चार कमरे कर दिया गया है।)