शायरी और सिनेमा जगत का नाता चोली-दामन का रहा है। इसे इस तरह भी कह सकता हूं कि फिल्म जगत में जब से आवाज शुरू हुई तब से संवाद से ज्यादा सशक्त माध्यम अपनी भावनाएं पहुंचाने का कोई रहा तो वो था गीत. और गीत का जरिया बने हमारे शायर, कवि।
फिल्म उद्योग में जो रुतबा किसी नायक, नायिका, निर्देशक या पटकथा लेखक का रहा है। उतना ही रुतबा कालांतर में हमारे गीतकारों का रहा है।
कवि प्रदीप, भरत व्यास, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, इंदीवर कोई भी नाम देख लें, ये वे लोग हैं जिनके गीत फिल्म में होना उनके हिट होने की सनद थे।
शायरों के पास रंगमंच के किस्से बहुत हैं। कई बड़े शायरों और कवियों के साथ मुझे मौका मिला साथ रहने का। उम्र में बहुत अंतर है, लेकिन मिज़ाज़ उस फ़ासले को दूर कर देता है।
पर आज बात करते हैं प्रो. वसीम बरेलवी की.
1958 से उनकी शायरी का सफर असल मायने में शुरू होता है। इससे पहले से वह शायरी कह रहे हैं, लेकिन ये वो साल था जब उनकी शायरी को पसंद किया जाने लगा।
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के स्टैचे हाॅल में मुशायरा था। मुशायरे का संयोजन कर रहे थे उस जमाने के स्टूडेंट लीडर राही मासूम रज़ा।
जी हां, ये वही राही मासूम रज़ा जी हैं, जिन्होंने बीआर चोपड़ा की महाभारत के संवाद लिखे।
राही मासूम रज़ा उस जमाने में अलीगढ़ के हीरो कहे जाते थे। पूरे अलीगढ़ में उनके इश़्क के किस्से मशहूर थे। एक पैर से लंगड़ाकर चलते थें।
अपने इश्किया अंदाज के चलते लोग उन्हें ‘बायरन ऑफ़ अलीगढ़’ के नाम से पुकारते थे। स्टैचे हाॅल का ये मुशायरा वही कंडक्ट कर रहे थे। संचालन के लिए इस अंदाज में उन्होंने वसीम साहब हो बुलाया, “अब मैं उस शायर को बुला रहा हूं जो एएमयू के हाॅस्टलों के गुसलखाने का शायर बन चुका है। जिसे आप एक साल से सुबह से शाम तक गुनगुना रहे हैं।”
इस मुशायरे से वसीम साहब की पहचान पूरे हिंदुस्तान भर में बननी शुरू हुई।
ये वो वक्त था जब उर्दू मुशायरों की शायरी की रवायत तोड़ने का काम एक नई उम्र का शायर कर रहा था। अचकन, टोपी, कुर्ता, पायजामा को तिलांजलि देकर पेंट-शर्ट पहने एक लड़का शायरी कर रहा था।
रवायती शायरों के ये बात गले नहीं उतर रही थी। लेकिन वसीम साहब अपनी धुन में चलते रहे।
करीब पांच सालों में उन्होंने देशभर में अपनी शायरी को पहचान दिला दी।
1963 में बरेली में उनके नाम पर जश्न-ए-वसीम मुनकिद किया गया। उस जमाने में इनकम टैक्स अधिकारी आर्या जी ने उसकी पूरी जिम्मेदारी ली।
फ़िराक़ गोरखपुरी को उसकी सदारत के लिए बुलाया गया। फ़िराक़ गोरखपुरी साहब उन दिनों मुशायरों की जान हुआ करते थे। एक हाथ में सिगरेट दबाए जिस अंदाज में मंच से वो बातचीत और शायरी करते थे उसे सुनने के लिए तमाम लोग सुबह तक बैठे रहते थे।
जश्न-ए-वसीम में वसीम साहब के लिए एक सरप्राइज रखा गया। आयोजकों ने यह तय किया कि वसीम बरेलवी की ग़ज़ल को मंच से गाने के लिए बालीवुड के किसी गायक को बुलाया जाएगा।
उन दिनों मुम्बई में दो आवाजों का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था, एक थे मोहम्मद रफ़ी और दूसरे महेंद्र कपूर।
रफ़ी साहब का वक्त नहीं मिल पाया। महेंद्र कपूर ने 16 फरवरी का वक्त दिया। कार्यक्रम 18 फरवरी को होना था। जो कि वसीम जी का जन्मदिन होता है। लेकिन 16 को कार्यक्रम किया गया।
कार्यक्रम के बीच में महेंद्र कपूर को मंच पर लाया गया। ये देखना वसीम जी के लिए भी चौंकाने वाला था। 23 साल का लड़का जो अपनी शोहरत छूनी शुरू कर रहा था उसके जश्न में महेंद्र कपूर जो एक स्वीकार्य गायक थे, वो आए हैं।
महेंद्र कपूर ने उनकीं दो गज़लें मंच से पढ़ीं। ये पहला मौका था जब किसी शायर को किसी गायक ने मुशायरे के मंच से गुनगुनाया हो। हालांकि इससे पहले गायक केवल कवियों और शायरों के कलाम को ही अपनी आवाज देते रहे हैं। लेकिन वो फिल्मों तक ही था।
मुशायरे के मंच पर विशेष तौर पर गायक ने किसी शायर को गुनगुनाया, ऐसा पहला मौका था और शायद अब तक ये आखरी भी है। यहां से वसीम बरेलवी को मुम्बई की मायानगरी में भी पहचान मिलनी शुरू हो गई।
एक किस्सा और याद आता है, मुम्बई के एक मुशायरे में वसीम जी को बुलाया गया। उस वक्त उनकी उम्र कोई 26 बरस की रही होगी। उनका कलाम सुनने के बाद मीना कुमारी के पीए वसीम जी के पास आए और बोले कि मैडम ने कल एक खाना अपने घर पर रखा है, आपको आना है।
वसीम साहब बताते हैं, “मेरे लिए ये लम्हा किसी सपने से कम नहीं था। जिस दावत में कुछ चंद लोग जाने वाले थे, उसमें मैं एक था। इसके अलावा फिराक गोरखपुरी, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, देव आनंद, दिलीप कुमार, जानी वाॅकर उस दावत में थे। मीना कुमारी जी ने मेरे साथ फोटो लिया। मैं नई उम्र का लड़का था, मेरी इतनी हिम्मत भी नहीं हुई कि किसी से अपना वो फोटों मैं मांग सकता। लेकिन उस लम्हे का फोटो मेरे जहन में आज भी है।”
इसके बाद वसीम बरेलवी के शेर देशभर में गुनगुनाए जाने लगे।
1975 के दौर में उन्हें बुलंदियां मिलीं और 1985 में पहली बार वो कराची गए। इसके बाद तमाम दुनिया में सफर किया। जगजीत सिंह ने उनकी गजलों और गीतों को अपनी आवाज दी।
राजनीति की बात करें तो शायद ही कोई महफिल या आंदोलन होगा जो उनके शेरों से शुरू या खत्म न हुआ हो। दिल्ली का प्रमुख अन्ना आंदोलन उनके शेर पर ही रखा गया –
उसूलों पे ग़र आंच आए तो टकराना जरूरी है
जिंदा हो तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2019 में विपक्ष के अंदाज पर तंज करते हुए उनके शेर का हवाला दिया –
कोई बात कब, कहां, कैसे कही जाती है
ये सलीका आ जाए तो हर बात सुनी जाती है।
उनके शेरों को अमेरिका में उनके चाहने वालों ने पत्थर पर चांदी-सोने के पानी से मड़वाकर अपने ड्राइंगरूम में टांग रखा है।
जिस जगह भी जाएगा वो रोशनी लुटाएगा
किसी चराग का अपना कोई मकां नहीं होता।
मेरी उनसे नजदीकी अपनी जगह है, लेकिन उनकी शायरी को एक दौर की शायरी कहने के लिए किसी नज़दीकी या प्रमाण की जरूरत नहीं है। मशहूर नाजिम अनवर जलालपुरी ने उनके लिए कहा,
तश्कीर-ओ-तामीर-ए-फन में जो कुछ भी वसीम का हिस्सा है
निस्ब सदी का किस्सा है, दो-चार बरस की बात नहीं।
(लेखक अमर उजाला में उप संपादक हैं। वसीम बरेलवी की जिंदगी से जुड़े तमाम छिपे और अनछुए पहलुओं पर इन दिनों किताब लिख रहे हैं। जीवनी जल्द हमारे बीच होगी।)