सिनेमा के सन्दर्भ में ‘सवाक ‘ अथवा टॉकी फिल्मों का आगमन प्रस्थान बिंदु की तरह स्मरण किया जाता है. बॉम्बे सिनेमा में इस तकनीक का भव्य स्वागत हुआ.
स्पष्ट हो चुका था कि फ़िल्में पॉपुलर तत्वों की और जाएंगी. साफ था कि गुजरा दौर यादों में बिसर जाने को है.
एक चलन को आने में कभी- कभी वर्षो का इंतज़ार होता है. कभी हर वर्ष कुछ न कुछ नया देखने को मिल जाता है. इसके मद्देनज़र फास्ट-फॉरवर्ड परिवर्तन का जो चलन फिल्मों में बढ़ा, उसने चौंका दिया. लेकिन यह परिवर्तन चलचित्रों की खास दुनिया तक सीमित नहीं है. विशेषकर इसे ‘आलमआरा’ बाद दुनिया से जोड़कर देखा नहीं जाना चाहिए.
दरअसल, सिनेमा में यह बातें शुरू से मौजूद रहीं. साइलेंट फिल्मों का जहान चुपचाप रहकर भी मुकम्मल ‘सम्प्रेषण’ का साधन था. परिवर्तन की धारा में संवाद की यह अनोखी दुनिया दुखद रूप से अदृश्य हो गयी.
लेकिन प्रथम सवाक फिल्म अपने नाम करने की दीवानगी तो देखें…
लगभग हर बडा निर्माता इतिहास का हिस्सा बनना चाह रहा था. इंपीरियल मूवीटोन के आर्देशिर ईरानी के पास प्रतिस्पर्धा को मात देने की चुनौती थी. मदान थियेटर, इंपीरियल मूवीटोन एवं कृष्णा के बीच पहली टॉकी बनाने को लेकर कड़ा संघर्ष था, लेकिन जीत का सेहरा यकीनी तौर पर ‘आलमआरा’ के सिर बंधा.
राजा की दो पत्नियों दिलबहार और नौबहार के बीच सौतन का झगड़ा है. एक फकीर की भविष्यवाणी कि ‘राजा के उत्तराधिकारी को नौबहार जन्म देगी’ से सौतन पत्नियों में तल्खियां बढ़ जाती हैं.
भविष्यवाणी पर क्रोधित दिलबहार राजा से बदला लेने के लिेए नित नई योजनाओं पर विचार करती है. पति और सौतन को सबक सिखाने के लिए वह राज्य के प्रमुख मंत्री ‘आदिल’ के सामने मुहब्बत का प्रस्ताव रखती है, आदिल से प्रेम का स्वांग रचकर वह राजा का मन जलाना चाहती है.
महारानी राजा से बदला लेने का संकल्प लेती है. पति का प्यार पाने के लिए वह रियासत के खाविंद ‘आदिल’ पर मोहब्बत का मोहपाश फेंकती है, लेकिन फ़तह व प्यार उसे फिर भी नहीं मिला.
राजा का फरमाबरदार आदिल रानी के प्रस्ताव को दो-टूक ठुकरा देता है. किस्मत के साथ समझौता न करके सभी खुशहाल लोगों की जिंदगी से मोहब्बत मिटा देने का ‘प्रतिशोध’ लेकर अग्रसर है।
दरअसल ‘आदिल’ के इस रुख से महारानी दिलबहार की ‘आस’ धुंधली होने लगी, मुहब्बत में नाकाम दिलबहार में प्रतिशोध की भावना पहले से ज्यादा हैं.
आदिल को सबक सिखाने के लिए रानी उसे कैदकर काल कोठरी में डलवा देती है. आदिल के ऊपर महारानी के सितमों का सिलसिला आगे भी जारी रहा, रंजिश आदिल की बच्ची ‘आलमआरा’ तक पहुंची.
आलमआरा को रियासत की सीमा से बाहर फेंक दिया जाता है. अनजान देश में असहाय भटक रही ‘आलमआरा’ पर एक खानाबदोश (बंजारे) समूह की नजर पड़ती है. वह उसे अपने साथ चलने को कहते हैं.
आलमआरा बंजारों के समूह के साथ हो जाती है, आगे की परवरिश ‘बंजारे’ ही करते हैं.
बंजारों के संरक्षण में पली-बढ़ी ‘आलमआरा’ परंपरागत खानाबदोश ‘करतबों’ में पारंगत हो जाती है. बड़ी होने पर उसे अपने इतिहास का पता चला जिसे जानकर पिता ‘आदिल’ को क़ैदखाने से रिहा करवाने वापस जड़ों की ओर लौटती है.
स्वदेश में उसकी मुलाकात रियासत के राजकुमार हुई, राजकुमार पहली नजर में ‘आलमआरा’ को दिल दे देता है. खूबसूरत आलमआरा की मीठी आवाज़ किसी को भी आकर्षित कर सकती है.
आलमआरा भी राजकुमार को चाहती है. अंत में, प्रेमियों का मिलन हो जाता है. क्रूर रानी (वैंप) को किए की सजा मिलने के साथ आलमआरा के पिता आदिल भी रिहा हो जाते हैं.
जोसेफ डेविड ने फ़िल्म की कथा मुख्य किरदार ‘आलमआरा’ नामक लड़की को ध्यान में रखकर लिखी. उन्होंने यह कहानी आर्देशिर ईरानी की कंपनी ‘इम्पीरियल मूवी टोन’ के लिए लिखी. मूल कथा ‘पारसी थियेटर’ से प्रेरित ‘राजकुमार और बंजारन’ प्रेम कहानी पर आधारित थी.
कथा-पटकथा पूरी होने बाद फ़िल्म के ‘संगीत’ पक्ष को संभव करने में अनेक कलाकारों ने सहयोग दिया, जिनमें वजीर मुहम्मद खान और फिरोज़शाह मिस्त्री का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
बंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित ‘आलमआरा’ हिंदी की पहली ‘सवाक’ (Talkie) फिल्म बनी. यह फिल्म दादा साहब फाल्के की मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के करीब डेढ़ दशक बाद आई थी. और उस वक्त इस फिल्म के निर्माण में तकरीबन चालीस हजार रुपये की लागत आई थी.
हिंदी सिनेमा को आवाज (ध्वनि एवं संवाद) मिलने बाद फिल्म प्रारूप में क्रांतिकारी बदलाव आए.
अब गीत-संगीत के साथ नाटकीय प्रभावों का प्रयोग संभव था. टॉकी के दशक में स्टुडियो का चलन भी शुरू हुआ. आर्देशिर ईरानी (इंपीरियल मूवीटोन), बीरेन्द्रनाथ सरकार (न्यू थियेटर्स), हिमांशु राय (बॉम्बे टाकीज), बालाजी पेंढारकर (प्रभात फिल्म कंपनी), चंदूलाल शाह (रंजीत स्टुडियो) आदि का गठन हुआ.
तीस के दशक में ही ‘प्रगतिशील लेखन आंदोलन’ की नींव भी पड़ी. साहित्य एवं अन्य रचनात्मक कार्यों को सौंदर्यशास्त्र दृष्टि से देखने की पहल हुई.
‘आलमआरा’ के रिलीज के पहले दिन नए युग के पदार्पण का स्वागत करने के लिए थियेटर पर भारी भीड़ उमड़ी. भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को कठिनाई का सामना करना पडा.
संगीतकार ‘फिरोज मिस्त्री’ की धुनों को अलग-अलग गायकों ने गाया, हिन्दी फिल्म का पहला गीत ‘दे दे खुदा के नाम पर’ को गायक व अभिनेता वजीर खान ने आवाज़ दी थी.
एक अन्य गीत ‘बलमा कहीं होंगे’ को गायिका अलकनंदा देवी ने गाया था, शेष गानों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती.
आलमआरा का एक भी प्रिंट अब शेष नहीं है, सभी किसी न किसी कारण नष्ट हो चुके हैं.
देश की शीर्ष फिल्म संरक्षण संस्था ‘पुणे राष्ट्रीय अभिलेखागार’ में भी आलमआरा की कोई भी प्रिंट नहीं मिलेगी. एकमात्र ऐतिहासिक प्रिंट को ‘अभिलेखाकार’ की त्रासद ‘आगजनी’ ने स्वाहा कर दिया है. फिल्म के कुछ फोटोग्राफ ही स्मृति रूप शेष हैं.
जब पहली बार ‘हवाई जहाज’ उड़ा तो उसकी उड़ान किसी खिलौने से ज्यादा नहीं मालूम हुई. लेकिन उसी के बाद हमें ‘हवा’ के जादुई सफर की चाबी मिली.
आलमआरा एवं भारतीय सिनेमा के प्रसंग में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है.
आलमआरा एक ऐतिहासिक विरासत रही जो वर्षों तक भविष्य के लिए प्रेरणा का स्रोत थी, भारतीय सिनेमा आदिकाल के पदचिह्नों पर चलकर आज को पा सका है.
संवाद आज के फिल्मों की पहचान है तो वजह आलमआरा ही है. अब भाव भंगिमाओं के साथ शब्द और ध्वनियां भी जुड़ गई हैं. सिनेमा की दुनिया में यह अगला बड़ा ‘परिवर्तन’ रहा. टॉकी की लोकप्रियता ने हमें बताया कि चलती तस्वीरों का एक नया जहान आ गया.
उसका आगमन तत्कालीन सिनेमा में नए चलन व प्रयोगों का गवाह बना. लेकिन परिवर्तन के लिए ही सही, सिनेमा बंट गया. मिट भी गया क्योंकि टाकी ने मूक फीचर फ़िल्मों की धारा रोक दी. कम होकर उनका चलन समाप्त हो गया.
पारसी स्टाइल में बनी आलमआरा में उस समय के जाने-माने पारसी स्टेज कलाकार ‘मास्टर विट्ठल’ और ‘जुबेदा’ ने काम किया. कहा जाता है कि फिल्म में काम करने के लिए विट्ठल पुराने स्टुडियो का ‘करार’ तोड़कर आए थे.