रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई
इक बार तो ख़ुद मौत भी घबरा गई होगी
यूँ मौत को सीने से लगाता नहीं कोई
साक़ी से गिला था तुम्हें मय–ख़ाने से शिकवा
अब ज़हर से भी प्यास बुझाता नहीं कोई
कैफ़ी आज़मी की नज़्म आपने ज़रूर सुनी होगी ये नज़्म कैफ़ी आज़मी ने गुरु दत्त की मौत पर लिखी थी .गुरु दत्त जो लगभग तेरह साल के फ़िल्मी कैरिएर में बहुत कुछ कर गए भारतीय सिनेमा को बहुत कुछ सीखा गए .
नौ जुलाई उन्नीस सौ पच्चीस को पैदा हुए गुरु दत्त हिंदी सिनेमा के एक ऐसे महान निर्देशक और अभिनेता है जिन्होंने अपनी अप्रतिम अभिनय प्रतिभा और कुशल निर्देशन क्षमता के कारण आज 56 साल बाद भी सिने प्रेमियों के दिलों ज़िंदा है।
लेखक इन्द्रजीत सिंह का कहना है की फ़िल्म का पहला उद्देश्य सामान्यतया मनोरंजन।होता है लेकिन महान निर्देशक कलाकार का उद्देश्य मनोरंजन से बढ़कर होता है। संवेदना और सरोकार और जीवन मूल्यों से सुसज्जित फिल्में ही निर्देशक को मान सम्मान देती है और कलाप्रेमियों के दिलों में स्थायी जगह। सत्यजीत रे की फिल्मों की शान में दुनिया के तमाम निर्माता निर्देशकों ने कसीदे पढ़े।
बाज़ी से प्यासा तक का सफर
गुरुदत्त ने बाजी,जाल,आर पार,और बाज़ जैसी मनोरंजन प्रधान फिल्मों का रास्ता छोड़कर प्यासा और कागज़ के फूल जैसी कलात्मक और संजीदा फिल्मों का रास्ता अख्तियार किया। 1955 से पहले “बाज़” और” बाज़ी” बनाकर उन्होंने सफलता और लोकप्रियता तो हासिल कर ली थी ,लेकिन उन्हें यह एहसास हो गया था मनोरंजन और पैसा ही उनके जीवन का मकसद नहीं है।
सामाजिक सरोकार, कलात्मक उत्कृष्टता और संवेदनशीलता से लबरेज़ फ़िल्म को दर्शकों तक पहुंचाना भी कलाकार का मकसद होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने 1957 में प्यासा बनाई।
गुरुदत्त की” प्यासा” फरवरी 1957 में रिलीज़ हुई। प्यासा फ़िल्म गुरुदत्त का एक सपना थी । इस दिव्य स्वप्न को साकार करने में मुख्य योगदान रहा पटकथा और संवाद लेखक अबरार अल्वी,अपने जमाने के सुप्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी और संगीत की जादुई धुनें बनाने वाले सचिनदेव बर्मन। गुरुदत्त के अप्रतिम नैसर्गिक अभिनय और लाज़वाब निर्देशन ने सिनेमा के पर्दे पर संवेदनाओं का ऐसा जादू रचा जिसकी गिरफ्त में आम आदमी भी था और खास आदमी भी।
प्यासा“फ़िल्म को टाइम्स मैगजीन ने दुनिया की सर्वश्रेष्ठ 100 फिल्मों में जगह देकर हिंदी सिनेमा में गुरुदत्त के योगदान को स्वीकार किया है। गुरुदत्त ने प्यासा फ़िल्म में विजय के रूप में ऐसे कवि शायर की भूमिका अदा की है जिसे ऐसे समाज से नफरत है जिसमे दिखावा,लालच ,स्वार्थ की भरमार है जहां पैसे के लिए रिश्ते का परियत्याग करना ,तन के सुख के लिए मन की परवाह न करना। जहां प्रेम की परवाह करने वाला कोई न हो ऐसी दुनिया को वह नहीं चाहते ।
काग़ज़ के फूल के फ्लॉप होने का मलाल
साहिर के गीत में माध्यम जे गुरुदत्त कहते हैं ,”ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनियां ,ये इंसां के दुश्मन रिवाजों की दुनिया ,ये दौलत के भूखे समाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या हैं “”गुरुदत्त उस दुनिया का तसव्वुर करते हैं जहां प्रेम और मुहब्बत की कद्र होती है,जज़्बातों की इज़्ज़त होती,सच को प्रतिष्ठा मिलती है,जहां भोलेपन का मज़ाक न उड़ाया जाता हो।
प्यासा फ़िल्म गुरुदत्त की प्यास को भी तृप्त करती है और सिने प्रेमियों की भी। गुरुदत्त ने प्यासा फ़िल्म के जरिये सिनेमा को कलात्मक उचांई प्रदान की
कागज़ के फूल ,प्यासा फ़िल्म का विस्तार थी। लेकिन यह गुरुदत्त का दुर्भाग्य था कि यह क्लासिक फ़िल्म आम जनता ने नकार दी। हालांकि इस फ़िल्म के कैफ़ी आज़मी साहब के गाने,” वक्त ने किया क्या हंसी सितम ” तथा “देखी ज़माने की यारी ,बिछड़े सभी बारी बारी” खूब मक़बूल हुए। गुरुदत्त फ़िल्म की असफलता से बहुत आहत हुए। मन को राहत देने के लिए उन्होंने मुस्लिम समाज की संस्कृति पर बहुत ही कामयाब फ़िल्म “चौदहवीं का चांद” बनाई। इस फ़िल्म से उन्हें नाम भी मिला और दाम भी । कागज़ के फूल की असफलता को वह भुला नहीं पाए और उन्होंने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि “यह काफी धीमी फ़िल्म थी,जो लोगों के सिरों पर से निकल गई“1
1962 में गुरुदत्त ने विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित एक सफल फ़िल्म “साहिब,बीबी और गुलाम “,का निर्माण किया। इस फ़िल्म को 4 फ़िल्म फेयर अवार्ड मिले। गुरुदत्त ने 15-16 साल के फिल्मी करियर में अनेक ऐसी फिल्में का निर्माण किया जिसके कारण हिंदी सिनेमा को गर्व और गौरव महसूस हो सकता है। प्यासा,कागज़ के फूल ,और साहिब बीबी और गुलाम क्लासिक।फिल्मों।की श्रेणी में गिनी जाती है। हिंदी सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर संवेदना और सरोकार को चित्रित करने वाले असाधारण अभिनेता और बेहतरीन निर्देशक के अविस्मरणीय योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।