परफ्यूम की बोतलें, कार–पेंट, यार्डले साबुन और दो डिब्बे मार्जरीन…रमज़ान के महीने में, 28 जुलाई 1980 को जब मोहम्मद रफ़ी ने अपने बेटे ख़ालिद से फ़ोन पर बात की तो लंदन से मुंबई आते समय ये सब लाने को कहा. किसे पता था कि बेटे के साथ ये उनकी आख़िरी बातचीत साबित होगी. तीन दिन बाद यानी 31 जुलाई को रफ़ी साहब ने अचानक इस दुनिया से विदा ली. ये बातें मोहम्मद रफ़ी की बहू यास्मीन ख़ालिद रफ़ी ने अपनी किताब में लिखी हैं.
ये बात आमतौर पर पढ़ने को मिलती है कि रफ़ी साहब की पैदाइश लाहौर से तकरीबन 80 किमी दूर, गांव कोटला सुल्तान सिंह, अमृतसर डिस्ट्रिक्ट यानी अविभाजित भारत में 24 December 1924 को हुई. हालांकि इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि मोहम्मद रफ़ी दरअसल भाटी गेट, लाहौर में पैदा हुए थे.
बचपन में फीको के नाम से पुकारे जाने वाले नन्हें रफ़ी के संगीत की तरफ़ झुकाव की कहानी भी ख़ासी दिलचस्प है. एक इंटरव्यू में उन्होने ख़ुद बताया था कि गांव में पैसे मांगने आने वाले एक फक़ीर की पुरकशिश आवाज़ ने उन्हें इस क़दर दीवाना बनाया कि वो दूर तक उसके पीछे पीछे चले जाते थे और फकीर के गाए गाने को सीखने से इस सफ़र की शुरूआत हुई.
संगीत से रफ़ी के गहरे लगाव की भनक उनके परिवार को थी लेकिन ‘लोग क्या कहेंगे’ ये सोचकर उनकी रुचि को बढ़ावा देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई…और ट्रेनिंग शुरू हुई संगीत की नहीं हज्जाम बनने की. जी हां रफ़ी साहब के बड़े भाई भाटी गेट लाहौर में हज्जाम का काम करते थे औऱ यहीं पर फीको साहब को भेजा जाने लगा ताकि वो भी हुनर सीख लें लेकिन डूबते को तिनके का सहारा अक्सर मिल जाया करता है. यहां तो रफ़ी साहब के पास उनके बड़े भाई थे–मोहम्मद दीन जिन्होंने पूरी कोशिश की कि अगर कहीं गाने का कोई मौक़ा हो या संगीत की कोई महफ़िल जमे तो रफ़ी को वहां ले जाया जाए..ज़ाहिर है अब्बा की नज़रें बचाकर.

मोहम्मद दीन ने ही अपने दोस्त हमीद की मदद से रफ़ी साहब को क्लासिकल तालीम दिलाने में भी क़सर नहीं रखी. लाहौर में उन्होंने बरक़त अली ख़ां साहब से सीखा. बाद में छोटे ग़ुलाम अली साहब और बड़े ग़ुलाम अली साहब की उस्तादी में भी रफ़ी साहब को सीखने का मौक़ा मिला हालांकि ये ट्रेनिंग का लंब अर्सा नहीं रहा…क्लासिकल संगीत में इस मज़बूत पकड़ को दिखाने का एक बड़ा मौक़ा उन्हे 1937 में उस वक्त मिला जब लाहौर में हुए एक प्रोग्राम में वो केएल सहगल साहब का सुनने पहुंचे. हज़ारों लोग जमा थे और अचानक बत्ती गुल. लाउडस्पीकर ना होने की वजह से सहगल साहब की आवाज़ का लुत्फ़ लोग नहीं उठा पा रहे थे और बेचैनी बढ़ने लगी. तब किसी तरह से रफ़ी साहब मंच पर पहुंचा दिए गए और उन्होने वो समां बांधा कि सहगल साहब ने रफ़ी को बुलाकर कहा कि एक दिन तुम बहुत बड़े गायक बनोगे.
इस बीच रेडियो लाहौर पर गाने के मौक़े मिलते गए लेकिन बड़ा गायक बनने का ये सपना लाहौर में पूरा नहीं होगा ये समझते हुए बड़े भाई साहब ने अपने दोस्त हमीद के साथ रफ़ी साहब को बंबई भेजने की मन बना लिया. आसान तो नहीं था लेकिन सपनों का झोला टांगे 1942 में रफ़ी साहब पेशावर के रास्ते फ्रंटियर मेल से बंबई पहुंच गए. मुंबई में किराए का कमरा लिया गया और तलाश शुरू हुई गाने के मौक़े ढूंढने की. काफ़ी कोशिशों के बाद पहला मौक़ा जो मिला वो गांव की गोरी फ़िल्म में म्यूज़िक डायरेक्टर श्याम सुंदर ने गवाया. हालांकि कामयाबी लफ़्ज़ अब भी दूर था लेकिन रास्ता बन चुका था.
बंबई के जिस घर में रफ़ी साहब किराएदार थे उन्ही के ज़रिए संगीत निर्देशक नौशाद से मुलाक़ात का वक्त मिल गया. नौशाद साहब रफ़ी की पक्की गायकी से ख़ासे प्रभावित हुए और पहले आप फ़िल्म में गाने का मौक़ा दिया और यहां से एक नए वक्त की शुरूआत हुई जिसमें कामयाबी का लम्हा आया 1947 में आई फ़िल्म जुगनू से. दिलीप कुमार और नूरजहां की अदाकारी से सजी इस फ़िल्म में उनहें सोलो गाना तो मिला ही, मल्लिका ए तरन्नुम नूरजहां के साथ डुएट गाने का सुनहरा मौक़ा भी हाथ लगा. अपने एक इंटरव्यू में रफ़ी साहब ने ख़ुद कहा कि यहां से सही मानों में कामयाबी आग़ाज़ हुआ. 1948 तक आते आते रफ़ी साहब की आवाज़ का जादू छा चुका था.
रफ़ी की गायकी की ख़ास बात उनकी आवाज़ की अलहदा तासीर तो थी ही, बात ये भी थी कि जब उन्होंने प्लैबैक सिंगर बनने का ख़्वाब देखा तो केएल सहगल के स्टाइल और गायकी की तूती बोलती थी. शास्त्रीय संगीत की ज़बरदस्त ट्रेनिंग, आवाज़ की अदायगी, रोमांस में भिगो देने वाला असर और हुनरमंद लोगों का साथ था जिसने रफ़ी साहब की कहानी को एक ख़ूबसूरत मोड़ दिया.
संगीत निर्देशक श्याम सुंदर और हुस्नलाल भगत ने मौक़े दिये तो नौशाद साहब ने उनकी गायकी की रेंज का भरपूर इस्तेमाल किया…एक इंटरव्यू में नौशाद ने इसका ज़िक्र करते हुए कहा कि आप रफ़ी से कॉमेडी, ठुमरी, दादरा, दर्द, इश्क़…कुछ भी गवा सकते थे…इसका मुज़ाहिरा 1952 में आई बैजू बावरा में हुआ जिसके 13 गानों में से 5 गानों में रफ़ी साहब ने जान फूंकी. हैरानी की बात नहीं कि रवींद्र जैन रफ़ी साहब को तानसेन कहकर ही पुकारा करते थे.
हालांकि 1950 और 60 के दौर में रोमांटिक गानों ने रफ़ी साहब को बेइंतहा शोहरत दिलाई और उन्होने एसडी बर्मन, ओपी नैयर, मदन, रवि शंकर–जयकिशन जैसे सारे नामचीन संगीत निर्देशकों के लिए गाया. शंकर जयकिशन ने ही उनसे याहू गवाया था. लेकिन इस दौर में चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो (चौदहवीं का चांद,1960), तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे (ससुराल, 1961), चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे (दोस्ती, 1964), बहारों फूल बरसाओ…(सूरज, 1966) जैसे गानों से रफ़ी लोगों के दिल पर यूं छाएं कि कई पीढ़ियों के चहेते कलाकार बन गए.

1960 का दशक याद किया जाता है रफ़ी साहब से जुड़े एक विवाद के लिए भी. उनके और लता मंगेशकर के बीच रॉयल्टी के मसले पर पैदा हुई दरार जिसने प्लेबैक सिंगिंग की दुनिया पर गहरा असर डाला. दरअसल मोहम्मद रफ़ी का मानना था कि गायक का काम अपनी फ़ीस लेकर गाना गाने के साथ ही ख़त्म हो जाता है. एक सिंगर फ़िल्म की सफलता या असफलता से जुड़ा कोई रिस्क नहीं उठाता इसलिए रॉयल्टी पर हक़ नहीं बनता. जबकि लता चाहती थीं कि प्रोडयूसर संगीत निर्देशक को जो रॉयल्टी देते हैं उसमें गायकों का भी हिस्सा हो क्योंकि फ़िल्म संगीत गायकों के नाम पर भी बिकता है.
इस मुद्दे पर लता और रफ़ी के बीच मनमुटाव बढ़ गया और लता मंगेशकर ने कहा कि वो अब रफ़ी साहब के साथ गाना नहीं गाएंगी. ख़ैर रॉयल्टी के मसले पर तो जो असर हुआ सो हुआ, कहा जाता है कि ये जोड़ी टूटने से रफ़ी के साथ सुमन कल्याणपुर की नई जोड़ी के साथ काम करने को निर्देशक मजबूर हुए और सुमन कल्याणपुर के करियर को रफ़्तार मिली.
1970 के दशक में भी उनके हिट गानों का सिलसिला चलता रहा हालांकि इस दशक की शुरूआत में उन्होंने कम गाया लेकिन उषा खन्ना के निर्देशन में हवस फ़िल्म के गाने तेरी गलियों में ना रखेंगे क़दम से रफ़ी साहब ने फिर रफ्तार पकड़ी और अमर अकबर एंथनी समेत कई फ़िल्मों के लिए ज़बरदस्त हिट गाने दिए.
एक पुराने इंटरव्यू में रफ़ी साहब इस बात का ज़िक्र करते हैं कि उन्होने पहली बार हज पर जाने के बाद फ़िल्मी दुनिया से बाहर निकलने का मन बना लिया था लेकिन नौशाद साहब उन्हें वापस खींच लाए. इसके बाद वो फिर डूब गए संगीत की धुनों में, अपनी मौत के दिन तक. 40 बरस से ज़्यादा वक्त तक अपनी रूमानी आवाज़ से श्रोताओं को भिगोने वाले मोहम्मद रफ़ी की मौत को 40 बरस हो गए हैं. रफ़ी चले गए लेकिन क्या उनकी आवाज़ का असर कभी दिलों से जाएगा? फ़िलहाल आलम ये है कि आज भी अगर रेडियो पर उनका गाना बज रहा हो तो उंगलियां वहीं थम जाती हैं. शायद इसी को जादू कहते होंगे.