भारत में जब कला सिनेमा दम तोड़ने लगा और फिल्म यथार्थ नहीं, बल्कि बाइस्कोप का डिब्बा केवल कल्पनाओं को बेचने लगा था, तब 60 के दशक में सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और उनके बाद 70 के दशक में मणि कौल, अदूर गोपालकृष्णन, मृणाल सेन, के बालाचंदर,केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और श्याम बेनेगल सरीखे निर्देशकों ने दम तोड़ते समानांतर सिनेमा को जिंदा करने का बीड़ा उठाया.
तब उस दौर में वैसे तो कई महानतम अभिनेता थे, वो इन निर्देशकों की इज्जत तो बहुत करते थे, लेकिन उनकी फिल्म में अभिनय से कन्नी काट लेते थे. तब उन निर्देशकों के सामने समस्या आन पड़ी ऐसे एक्टरों की जो उन नीरस फिल्मों में रंग भर सकें. उसी दौर में दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और पुणे के भारतीय फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान (एफटीआईआई) से पास हुए युवा कलाकार ओम पुरी मुंबई पहुंचे.
चेहरे पर चेचक का दाग लिये और शरीर ऐसा की हवा भी चले तो ओम पुरी जमीन पर गिर जाएं. अब इसे ओम पुरी की खूबी कहेंगे कि उनका जीवट कि कलात्मक फिल्मों में उन्होंने अपने अभिनय के बूते अपने फन का लोहा मनवाया.
फिल्म में किसी भी तरह की भूमिका हो, ओम पुरी पर्दे पर संवाद ऐसे बोलते थे कि लगता ही नहीं था कि वो किसी पटकथा के सहारे अभिनय कर रहे हैं. ओमपुरी ने समानांतर सिनेमा के साथ व्यवसायिक फिल्मों में भी सफल अभिनय किया और अपनी एक अलग पहचान बनाई.
आक्रोश, अर्धसत्य, आघात और द्रोहकाल जैसी फिल्मों में यादगार किरदार निभाने वाले ओमपुरी फिल्मों में फिर से इसी तरह की भूमिका निभाना चाहते हैं, लेकिन इस तरह की फिल्मों के घटते प्रचलन से वो बड़े ही खिन्न रहते थे.
हालांकि उन्हें इस तरह की फिल्में बनने और उसमें काम करने की उम्मीद है. ओम पुरी ने कलात्मक फिल्मों को अपने ही अंदाज में बयां किया.
उन्होंने खुद कहा था कि कलात्मक फिल्में अखबार के संपादकीय की तरह होती हैं, जिसे अखबार के सभी पाठक तो नहीं पढ़ते हैं लेकिन इसका अपना महत्व होता है और इसे पढ़ने वाला एक निश्चित पाठक वर्ग होता है. पढ़ने वालों के संख्या के आधार पर संपादकीय का होना या न होना तय नहीं होता.
1976 में मराठी फिल्म ‘घासीराम कोतवाल’ से ओम पुरी ने अपना फिल्मी सफर शुरू किया. उसके बाद साल 1981 में उन्होंने फिल्म ‘आक्रोश’ की, जिसने उन्हें सिनेमा जगत में पहचान दिलाई.
1983 में प्रदर्शित ‘अर्द्धसत्य’ ओम पुरी ने अनंत वेलंकर नामक पुलिस ऑफिसर की भूमिका निभाई थी. ओम पुरी यानी अनंत वेलंकर सिस्टम के साथ लड़ता है, वो हर उस खामी के खिलाफ लड़ता है, जो इंसान की जड़ें खोखली बनाती हैं. ‘आक्रोश’ और ‘अर्धसत्य’ में ओमपुरी के अभिनय की जमकर तारीफ हुई और इसके बाद फिल्मी दुनिया में उनकी गाड़ी चल निकली.
उन्होंने अपने सशक्त अभिनय से कई फिल्मों को बाक्स आफिस पर सफलता दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. गंभीर सिनेमा के एंग्री मैन माने जाने वाले ओमपुरी ने कई फिल्मों में हास्य कलाकार की भूमिका भी निभाई है.
सैम एंड मी, सिटी आफ जॉय और चार्ली विल्सन वार जैसी अंग्रेजी फिल्मों समेत उन्होंने लगभग 200 फिल्मों में काम कर चुके ओम पुरी सही मायने में एक्टर नहीं भीड़ में गुम हर उस शख्स की तरह थे, जो जिंदगी के चेहरे चेचक का दाग लिये खुद को गढ़ने में लगा हुआ है.
ओम पुरी का कला और समानांतर फिल्मों के घटते प्रचलन के बारे में अपनी एक अलग राय थी. जिसके मुताबिक उनका मानना है कि 1950 और 60 के दशकों में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में अधिकतर लोग थियेटर से आए थे लेकिन जसे जसे वक्त गुजरता गया कला के प्रशंसक घटते गए और व्यवसायिक हित महत्वपूर्ण होते चले गए.
यही कारण है कि समाज की स्याह सचाइयों को सामने लाने वाली फिल्में बनाने का जोखिम अब लोग उठाना नहीं चाहते है.
वो खुद भी मानते थे कि समानांतर सिनेमा के साथ-साथ उन्हें कमर्शियल फिल्में भी करनी पड़ती हैं. वे अक्सर कहा करते थे कि समानांतर सिनेमा से ब्रेड मिलती है, बटर के लिए कमर्शियल सिनेमा करना पड़ता है.
हिंदी सिनेमा का वो आक्रोश, वो अर्धसत्य, वो मंडी का रामगोपाल आर्टिस्ट आज भी हमारे लिए ज़िंदा है. ओम पुरी जैसे कलाकार कभी कभी पैदा होते हैं.