औपचारिक या अनौपचारिक बातचीतों के दौर में अक्सर ‘आज की मूल्यहीनता’ का घिसा-पिटा मुहावरा और पुराने वक्त पर पढ़े जाने वाले कसीदे सुनने को मिलते हैं। यह बात काफी हद तक सही भी है, और जीते जी आम आदमी के लिए अतीत से पीछा छुड़ाना बेहद कठिन होता है। फिर भी, दार्शनिक स्तर पर बात की जाए या वैज्ञानिक आधार पर, वक्त हमेशा आज में ही चलता है और उसे सही ढर्रे पर चलाकर ही भविष्य की मजबूत नींव तैयार की जाती है।
यह भूमिका इसलिए क्योंकि यह सच जितना सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर सटीक बैठता है, उतना ही सिनेमा की जमीन पर भी। हमारे देश की भावी पीढ़ियां यदि कभी अपने अतीत के समाज की चलती-फिरती छवियां देखने की हसरत रखेंगी तो वह मुंबई के तथाकथित ‘बाॅलीवुड’ का शोरगुल नहीं होगा और न ही होना चाहिए, बल्कि जिन फिल्मकारों को उस समय याद किया जाएगा, उनमें सत्यजित राय (2 मई 1921 – 23 अप्रैल 1992) का नाम सबसे ऊपर होगा।
भारतीय संदर्भ में सत्यजित राय का महत्व केवल एक फिल्मकार के तौर पर ही नहीं है, बल्कि वह एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कलाकार थे। अक्सर कई स्थानों पर उनके बनाए रेखाचित्र, किताबों के कवर, फिल्मों के पोस्टर और विज्ञापन के क्षेत्र में तैयार की गई कलाकृतियां हमारी आंखों के सामने से गुजर जाती हैं और लोगों को इसका इल्म तक नहीं होता कि वह किसकी रचनाएं है। इसलिए राय को जितना बतौर फिल्मकार याद रखा जाएगा, उतना ही चित्रकला, संगीत, लेखन, संपादन और सिने चिंतक के बतौर उनके स्मरणीय योगदान को भी।

आधुनिक पीढ़ी बेशक सत्यजित राय की इस बहुआयामी प्रतिभा से अनभिज्ञ है, परंतु हैरान कर देने वाली बात यह है कि इस पीढ़ी के फिल्म प्रेमी मुख्यधारा की पिछली पीढ़ियों के प्रसिद्ध निर्देशक और अभिनेताओं से भी उतनी ही अनजान है। इससे यह साफ जाहिर होता है सिनेमा जैसा ‘पाॅपुलिस्ट मीडियम’ भी बहुत जल्दी अपनी पहचान खो देता है, परंतु उसकी मौलिक प्रतिभाओं पर जब-तब जरूर चर्चा होती रहती है। तभी तो कुछ ही दिन पहले सत्यजित राय के सुपुत्र संदीप राय को अपने घर के स्टोर रूम में से जब अपने पिता की कई पुरानी तस्वीरों के नेगेटिव्ज़, पत्र आदि मिलने की खबर आई, समूचे सिने प्रेमियों में कौतुहल की लहर दौड़ गई। हैरानी नहीं कि राय को आॅर्थर सी क्लार्क, रिचर्ड एटनबरो, फ्रेंक काप्रा आदि द्वारा लिखे गए यह पत्र अपने आप में पूरा इतिहास समेटे हों और कई अनदेखी तस्वीरें पहली बार सिने प्रेमियों के सामने नुमायां हों।
बहरहाल, आज सत्यजित राय के 99वीं जयंती के अवसर पर हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि जल्दी ही यह पत्र और तस्वीरें प्रकाशित रूप में सामने आएंगे। सत्यजित राय और उनके जैसे कई सांस्कृतिक आधारस्तंभों के बारे में नई पीढ़ियों को समय-समय पर याद दिलाना एक बड़ी जिम्मेदारी है। तेज सूचना प्रवाह के इस दौर में यह काम खासा दुश्वार भी है क्योंकि पाठक की एकाग्रता का दायरा सिकुड़ चुका है, लेकिन फिर भी उम्मीद बाकी है कि अपनी जमीन की बात करने वाले हर नई पीढ़ी में रहते हैं और उन्हीं के दम से किसी भी समाज का सांस्कृतिक परिवेश भी कायम रहता है।
सत्यजित राय की जयंती के अवसर पर भारतीय सिनेमा के उस पक्ष की बात की जानी चाहिए जिसने उसे पहली बार सही मायनों में अंतरराष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाई थी। जाहिर है यह पहचान राय ने ही दिलाई थी और जीवनपर्यन्त उसे कायम रखा। इसलिए एकबारगी सिनेमा की पाॅपुलिस्ट धारा से कुछ देर के लिए हटकर उसके संजीदा पहलू पर ध्यान केंद्रित करें तो पाएंगे कि रोचकता के मापदंड के लिहाज से भी यह कुछ कम नहीं है।
दरअसल, सिनेमा का जादू ही कुछ ऐसा है, उसका कोई भी पक्ष कम-से-कम रोचकता के मामले में तो नाउम्मीद नहीं करता। किसी ने ठीक ही कहा है – फिल्म अच्छी हो या बुरी, उसे बनाने में मेहनत एक सी लगती है और उसकी यही प्रक्रिया नवोदित फिल्मकारों को सिखाती है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। और सीखने की प्रक्रिया यदि सत्यजित राय जैसे बहुमुखी प्रतिभाशाली फिल्मकार की फिल्मों के जरिए संपन्न हो, तो नए फिल्मकार स्वाभाविक ही कुछ बेहतर दिखेंगे।