हिंदी फिल्मों में 1300 गीतों को अपनी आवाज़ देने वालें मुकेश केवल एक नेशनल फिल्म अवार्ड जीत सके
पिछली सदी में जन्म लेने वाले अधिकांश लोग जब कभी तन्हा होते हैं तो उनकी तन्हाई का एक ही साथी होता है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि शायद जब तन्हाई भी तन्हा होती होगी तो मुकेश के गाए गीत गुनगुनाकर ही अपना मन हल्का करती होगी।
मुकेश उस आवाज़ का नाम है जो मोहब्बत को गाना भी जानता है और उसके दर्द को बयां करना भी।
अपने गमसफ़र को वादे याद दिलाने हों तो फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ (1975) का गीत मैं न भूलूंगा, मैं न भूलूंगी कौन भूल सकता है?
जब कोई आपके प्यार में शर्त रखे और आपको टेकन फाॅर ग्रांटेड ले तब आप मुकेश (जन्म-22 जुलाई, 1923) को फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ (1970) के गीत, कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, के जरिए गुनगुनाते होंगे।
मायूस और हताश हो चुके हों तो ‘मेरा नाम जोकर’ (1972) के गीत, जाने कहां गए वो दिन के साथ उन्हें याद करते होंगे। कितने गीत लिखें जाएं जो जीवन के हर उतार चढ़ाव में हमें मुकेश की याद दिलाते हैं।
साढ़े तीन दशक तक हिंदी फिल्म गीतों की दुनिया में अपनी अगल और जादू भरी आवाज़ से सबको दीवाना बनाने वाले मुकेश अपने समकालीन गायकों के मुकाबले कम ही गीत गा सके। करीब 1300 गीत उनकी आवाज में सजे और हमारे सामने आए।
हैरानी ये है कि उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय गीतों को कोई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार नहीं मिला।
फिल्म ‘रजनीगंधा’ (1974) के गीत- कई बार यूं ही देखा है, मेरे मन की सीमा रेखा है, के लिए अपने करियर के आखरी पड़ाव में उन्हें एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मुकेश से अपने रिश्ते की बात करूं तो मेरा पसंदीदा गीत उन्हीं की आवाज़ से सजा हुआ है। चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था (फिल्म- हिमालय की गोद में, 1965)। इसके अलावा न जाने कितने गीत जो मैं गाता, गुनगुनाता रहा हूं वो मुकेश के ही गाए हुए हैं।
उन्होंने अपने समकालीन गायकों के मुकाबले बेशक कम गीत गाए हैं, लेकिन जिन चुनिंदा गीतों को अपनी आवाज़ दी है वो अमर हो गए हैं।
मुझे याद नहीं पड़ता कि उनका कोई गीत ऐसा हो जो लोगों की ज़ुबान पर न रहा हो।
सजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है (तीसरी कसम), दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई (तीसरी कसम), कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है (कभी-कभी), सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देतीं (मुक्ति), सावन का महीना पवन करे शोर, हम तुम, युग-युग से ये गीत मिलन के, मुबारक हो सबको समा ये सुहाना (मिलन)… कितने गीत याद किए जाएं।
और तो और, फिल्म ‘शोर’ के जिस गीत को पिछली सदी का ‘सॉन्ग ऑफ द मिलेनियम’ (एक प्यार का नगमा है) का खिताब मिला है, उसे भी अपनी आवाज़ में सजाया है मुकेश ने।
मुकेश का मुरादाबाद और मुरादाबादियों से नाता इस लिहाज से भी है कि यहां की जमीन के जिस रचनाकार का एकमात्र गीत हिंदी फिल्मों में गाया गया उसे आवाज दी मुकेश ने। फिल्म थी, ‘जिंदगी और तूफान’ (1975)। संगीत दिया था लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने और गीत लिखा था मुरादाबाद के कवि राम अवतार त्यागी ने।
अपने समय के हिट गीतों में यह गीत शुमार है।
केएल सहगल के फैन रहे मुकेश शुरू में उन्हीं के अंदाज में गाते थे। 1941 में अपनी पहली फिल्म ‘निर्दोष’ में बतौर अभिनेता-गायक आए मुकेश की आवाज को उनके करीबी मोतीलाल ने पहचान लिया और उसे पहचान दिलाने की कोशिश में जुट गए।
1945 में पहली नजर फिल्म के लिए उन्हें गीत दिया गया, ‘दिल जलता है तो जलने दो’। ये गीत मुकेश के जीवन का टर्निंग प्वाइंट था।
हिंदी सिनेमा को अपना दूसरा केएल सहगल मिल चुका था।
खुद केएल सहगल ने जब ये गीत सुना तो वह पहचान नहीं सके कि यह उनकी आवाज़ नहीं है। लेकिन संगीतकार नौशाद मुकेश को मुकेश बनाना चाहते थे। उन्होंने उनकी मदद की मुकेश के भीतर से केएल सहगल को निकालने के लिए।
इसके बाद मुकेश ने अपना खुद का अंदाज़ बनाया और हिंदी सिनेमा को सबसे वजनदार आवाज़ों में से एक आवाज़ मिली, जो थी मुकेश की।
आप जब भी अपने जीवन के सबसे शांत लम्हों में होंगे और हिंदी गीतों के दीवाने हैं तो आपके होंठों पर आने वाले गीत मुकेश के ही गाए होंगे, ऐसा मेरा भरोसा है।
हिंदी सिनेमा के गीतों में मोहब्बत के लिए रफ़ी, मस्ती के लिए किशोर और दर्द के लिए मुकेश की अलग ही जगह है। मुकेश आपको जीवन का हर रंग देते हैं।
उनका गाया एक गीत है जो उन्हें अमर बनाता है और शायद उनके जीवन की हकीक़त भी है, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोले।
मुकेश को उनके 97वें जन्मदिन पर श्रद्धांजलि।