भारत की शिक्षा नीति पर लंबे समय से सवाल खड़े होते रहे हैं। वजह यही थी कि जिस चीज़ को हम पसंद नहीं करते उसे पढ़ना क्या और कितना जरूरी है!
देश में जब दो दिन पहले ही नई शिक्षा नीति के मसौदे को मंजूरी मिली हो और उसके दूरगामी परिणामों पर तमाम विद्वान बेवजह की बहस करने में जुटे हों, ऐसे में ‘शकुंतला देवी’ जैसी फिल्म आपको इस नीति के आकलन को दिशा देने में मदद कर सकती है।
नई शिक्षा नीति पर बीते कल अखबारों में विशेष पृष्ठ छापे गए। मेरी मां ने पढ़कर कहा, अच्छी नीति है। अब गणित में पढ़ना ज़्यादा ज़रूरी है या फिर गणना। मेरा जवाब था गणना।
फिर वह बोलीं, और क्या ? हम इतने सालों से घर चला रहे हैं, पापा की तनख़्वाह में सारे खर्चे करके बचा भी लेते हैं, हमने क्या मैनेजमेंट की पढ़ाई की है? मेरे पास जवाब नहीं था। मां सही थी।
शकुंलता देवी फिल्म देखते हुए मेरे ज़हन में सबसे पहली तस्वीर मेरी मां की उभरती है, जिसने किसी व्यवस्थित क्रम में शिक्षा लिए बिना ज़िंदगी का हर इम्तिहान उत्तीर्ण किया है।
शकुंलता देवी फिल्म की बात करें तो वो आपको कहानी में बांधे रखती है। शकुंलता देवी को उत्तर भारत के लोग नहीं जानते, कम से कम मैं तो नहीं। या तो मैं गणित में कमजोर रहा हूं इसलिए, या फिर ये मेधा दक्षिण भारत की थी और हिंदी की मीडिया ने शायद दक्षिण भारतीय होने के नाते उन्हें पर्याप्त स्थान नहीं दिया इसलिए।
यह फिल्म मुझे इस अनजान पात्र से मिलवाती है, इसलिए मैं इस फिल्म से पूरी तरह जुड़ा रहा।
अगर आप फिल्म देखने से पहले विकीपेडिया पर शकुंतला देवी के बारे में पढ़ने की कोशिश नहीं करेंगे तो आप भी फिल्म से जुड़ेंगे।
अब बात करते हैं फिल्म की अच्छी और बुरी बातों की।
शकुंलता देवी का जन्म 1929 में हुआ था। निर्देशक अनु मेनन की यह चौथी फिल्म है। इससे पूर्व अनु की लंदन, न्यूयाॅर्क, पेरिस (2012), एक्स: पास्ट इज़ प्रेज़ेंट (2015), वेटिंग (2015) आ चुकी हैं।
उनकी फिल्में कामयाबी नहीं रही हैं. इसके अलावा प्राइम पर ही उनकी वेब सीरीज ‘फोर मोर शाॅट्स प्लीज़’ युवा वर्ग को जरूर पसंद आई हो, लेकिन उसमें सिवाय कुंठा के कुछ सही से दिखाई नहीं पड़ता।
इस फिल्म में अनु ने एक अलग तरह का सिनेमा दिखाने की कोशिश की है। लेकिन मुझे लगता है कि निर्देशन से ज्यादा ये फिल्म शकुंलता देवी के जीवन प्रसंगों के कारण लुभाती है।
1930 के दशक को दर्शाने में फिल्म असफल लगती है। कारण यही रहा है कि अनु ने जिस पृष्ठभूमि का पात्र उठाया है, वह स्वयं उस पृष्ठभूमि से अपरिचित हैं।
इस अंतर को आप इस तरह से समझ लें कि तिग्मांशु धूलिया जिस परिवेश का सिनेमा आपके सामने रखते हैं उसे उन्होंने खुद जिया है।
अनु की पढ़ाई लिखा दिल्ली और पिलानी में हुई। इसके बाद वह लंदन चली गईं। इसलिए, फिल्म में बंगलुरू के ग्रामीण परिवेश को दर्शाने में कमजोर रही हैं। हां, लंदन के जीवन को दर्शाने में उन्होंने न्याय किया है।
फिल्म के संवाद संवाद लिखे हैं इशिता मोइत्रा ने। इससे पहले इशिता कई फिल्मों के संवाद लिख चुकी हैं। बरेली में जन्मी इशिता संवाद के साथ कुछ हद तक न्याय करती दिखती हैं। लेकिन दक्षिण भारत के लिहाज से संवाद लिखने में थोड़ी कमजोर रही हैं। हालांकि उन्होंने प्रेम दृश्यों को लिखने में कमी नहीं की है।
‘जब तुम, तुम रहोगी, तभी हम, हम रहेंगे न।’ ये संवाद शकुंलता और उनके पति पारितोष के बीच बोला गया सबसे रोमांटिक और एहसासों को समेटे हुए था।
इसके अलावा बाल शकुंतला के मुंह से निकला संवाद, इस घर में कमाती मैं हूं, तो घर की अप्पा भी मैं ही हूं।
‘मैं सिर्फ मां नहीं हूं, मैं अब भी मैं हूं।’ संवाद आपको स्त्री के अन्तर्द्वंद को दर्शाता है।
स्क्रीनप्ले के तौर पर नयनिका मथानी की यह पहली फिल्म है। मूल रूप से बैंकर और लेखक नयनिका ने अपनी पहली फिल्म में कोई कमी न छोड़ने की कोशिश की है। जिसे वह कई हद तक पूरा करती दिखती हैं।
इस ईमानदारी को इस बात से समझा जा सकता है कि फिल्म के बढ़ने के साथ-साथ ही आप शकुंतला देवी की मेधा के मुरीद भी बनते हैं और उनके व्यक्तित्व से नफ़रत भी करने लगते हैं।
केंद्रीय पात्र के प्रति आकर्षण या नफ़रत पैदा करने के मूल भाव को दर्शक के भीतर जन्म देने में यदि स्क्रीनप्ले राइटर सफल हो सका है तो मैं समझता हूं कि पात्र के साथ न्याय हुआ है और नयनिका ने यह न्याय किया भी है।
कई जगह सिचुएशन को बहुत अच्छे से लिखा और दर्शाया गया है। शकुंलता देवी के अहम और मेधा दोनों को नयनिका ने अच्छे से लिखा है।
यही वजह है कि आप उससे जुड़ने के साथ ही नफ़रत भी करते हैं। जैसे, पारितोष का शकुंतला को बताना कि उसकी बेटी ने पहला शब्द बाबा बोला है, और शकुंलता अगले ही पल उड़कर भारत वापस आ जाती हैं। मां के अंदर ये नफ़रत आ सकती है, इसे दर्शाया गया है। अपने होने वाले दामाद के प्रति एक प्रसिद्ध सास के भाव को बखूबी दर्शाया है। और भी कई क्षण हैं जिन्हें आप फिल्म देखकर खुद महसूस करेंगे।
फिल्म में चार गाने हैं, वायु के लिखे दोनों गाने अच्छे हैं। अंत में आया गाना – एक, दो, तीन, चार ज्यादा पसंद आया। बाकी तीन गाने साधारण हैं। गीत आपको ज़ुबान पर चढ़ने लायक लगेंगे भी नहीं, और वैसे भी गणित में गीत का क्या काम? हां संगीत और पार्श्व ध्वनियां सुकून देती हैं।
पात्र के साथ विद्या बालन ने पूरा न्याय किया है। जवानी से लेकर बुढ़ापे तक की शकुंतला देवी को निभाने में उन्होंने कोई कमी नहीं की। ‘तुम्हारी सुलु’ और ‘मिशन मंगल’ में अपनी मजबूत अदाकारी का लोहा मनवा चुकी हैं।
बायोपिक के हिसाब से शकुंतला देवी के कैरेक्टर को पर्दे पर निभाने के लिए विद्या बालन से बेहतर अभिनेत्री इस समय में मिल पाना मुश्किल ही दिखता है।
सनाया महरोत्रा ने इस फिल्म में अपनी उपयोगिता को बरकरार रखा है। दंगल से लेकर इस फिल्म तक गुस्सा उनकी नाक पर रखा हुआ हैं। इसलिए अनुपमा बनर्जी की भूमिका में वो संपूर्ण दिखाई देती हैं।
मां नाराज़ बेटी के तौर पर हावभाव और व्यवहार में प्रदर्शित करने में सनाया ने कमी नहीं की है। उनके पति की भूमिका में अमित शाद फिल्म में कम समय के लिए दिखाई देते हैं, लेकिन मजबूत स्थिति में हैं।
यहां कह सकते हैं कि निर्देशक, स्क्रीनप्ले और संवाद लेखक सभी महिलाएं हैं इसलिए स्त्री भावनाओं और विचारों को ज़ाहिर करने में जितना न्याय हुआ है उतना ही अन्याय पुरुष पात्रों के संवाद और उनकी पात्र अवधि के साथ किया गया है।
फिल्म इन सबके अलावा इसलिए खास है कि बायोपिक के माध्यम से ये आपको इस बहस की ओर तो ले ही जाती है कि भारतीय शिक्षा पद्धति तार्किक है या नहीं। पढ़ाई का प्रमाण-पत्रों से कोई लेना-देना नहीं और साथ ही मेधा किसी की मोहताज नहीं होती।
बच्चों के साथ फिल्म को देखने में न केवल अंको के प्रति बल्कि गणित के प्रति भी उनमें रुचि पैदा हो सकती है। इस मामले में फिल्म उपयोगी है।
बायोपिक अक्सर ज्यादा पसंद कर ली जाती हैं। उसमें तमाम कमियों के बाद भी दर्शक उनसे जुड़े रहते हैं क्योंकि वह उस फिल्म के मुख्य पात्र के जीवन और उसके संघर्ष के क्षणों में झांकना चाहते हैं।
इस फिल्म के साथ भी कुछ ऐसा ही है।
सचाई यह है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ अब तक की सभी फिल्मों में ‘यारा’ और ‘शकुंतला देवी’ एक अच्छे सिनेमा का एहसास कराती हैं।
पूर्व में इस लाॅकडाउन में रिलीज़ फिल्मों को देखकर अगर आपको लगा कि ओटीटी मेंबरशिप का लाभ नहीं हुआ तो ये दो फिल्में आपको निराश नहीं करेंगीं।
कुल मिलाकर शकुंलता देवी फिल्म आपको एक स्त्री के उसकी पहचान के लिए किए जा रहे संघर्ष, प्रसिद्धी के बाद आने वाले घमंड, स्थिति-परिस्थिति को अपने अनुसार ढालने और एक मां के स्त्री होने की पहचान को पाने की कहानी हैं। एक पंक्ति में कहूं तो ये ज़िंदगी के गुणा-गणित की कहानी है।
(लेखक अमर उजाला में उप संपादक हैं)