हिंदी फिल्मों का बॉयोपिक से रिश्ता कुछ ज़्यादा ही गहरा हो गया है, पिछले दिनों शकुंतला देवी के बाद इसी कड़ी में एक और फ़िल्म जुड़ी है “गुंजन सक्सेना”।
एक सकारात्मक मूड और पसंद करने की चाहत के साथ मैंने फ़िल्म शुरू की। भारत की पहली महिला शौर्य चक्र विजेता पायलट गुंजन सक्सेना के जीवन पर आधारित यह फ़िल्म गुंजन के बचपन से होती हुई उनके कारगिल युद्ध में शामिल होने तक की कहानी है लेकिन फ़िल्म में कहानी कब शुरु होती है ये आपको आधी फ़िल्म निकल जाने के बाद भी पता नहीं लगता। मतलब प्रोटैगोनिस्ट का बेसिक कॉन्फ्लिक्ट इतना फोर्स्ड लगता है कि आपको यकीन ही नही होता है कि ये कॉनफ्लिक्ट है। ये इस फ़िल्म की राइटिंग की मूल कमज़ोरी है।
आधी फ़िल्म गुज़र जाने के बाद आप गुंजन से रिलेट करना शुरू करते हैं। शायद एक दो सीन को छोड़ दिया जाए तो आपको फ़िल्म इमोशनली मैनिपुलेट करती हुई लगती है। कारगिल के सीन कई ज़्यादा थ्रिलिंग हो सकते थे। लेकिन शायद फ़िल्म का फोकस गुंजन के इंटरनल कनफ्लिक्ट पर ज़्यादा रहा।
फ़िल्म में पड़ोसी देश से जंग से ज़्यादा भारी लड़ाई नायिका की इस मेल डोमिनटेड सोसाइटी से रही है। फ़िल्म की एक मात्र खूबी है उसका सिंपल होना, जबरदस्ती का ड्रामा न बनाना, लेकिन कई बार लगता है कि शायद गुंजन की असल जिंदगी और भी सिंपल रही होगी, ऐसा लगता हैं कि फ़िल्म में स्टोरी-टेलिंग की मज़बूरियों के कारण ड्रामा डाला गया है, जो थोपा गया लगता है।

ठहराव की भारी कमी और हड़बड़ में कहानी कहने का उतावलापन हिंदी फिल्म्स का कल्चर हो गया है, औए यहां भी वो भरपूर जारी है, उसके बावजूद एक चीज़ जो फ़िल्म में एक अच्छी कोशिश की तरह लगती है वो है, दो लोगों के बीच बातचीत जो कि हिंदी फिल्मों में न के बराबर होता है लेकिन उसमें भी डेप्थ की कमी लगती है। गुंजन और उसके पिता के बीच की बातचीत सतह से काफी ऊपर आने को संभावना थी, गुंजन और उसके भाई के बीच की बातचीत तो सतह को भी नहीं छू पायी है।
फ़िल्म की स्क्रिप्ट प्रॉपर थ्री स्ट्रक्चर में है, ये खासियत भी है और फ़िल्म के एक्सपेक्सटेड होने का भी कारण यही है, आपको पहले ही आता चल जाता है कि क्या होने वाला है। डायलॉग काफी सिंपल हैं।
टाक ऑफ द टाउन पंकज त्रिपाठी फ़िल्म में गुंजन के पिता के किरदार में हैं, पंकज त्रिपाठी मुझे काफी इम्प्रेससिवे लगते हैं(बाकी फिल्मों में), इस फ़िल्म में ऐसा लगता है ऐसे वो एक मिडिल क्लास पिता की मिमिक्री कर रहे हैं । कारण चाहे जो भी हो, हाल के दिनों में उनकी अनगिनत इंटरव्यू का आना भी एक कारण हो सकता है, शायद उनका रियल पर्सोना मेरे जेहन में ज़्यादा घर कर गया हो।

जाह्नवी कपूर जितनी ट्रोल की जाती हैं, उतनी बुरी एक्टर नहीं हैं लेकिन कोई क्या करे जब पूरे फ़िल्म में उसको रोने के सिवा कुछ करने को मिले ही न। गुंजन के भाई बने अंगद बेदी आपको कहीं भी इंप्रेस नहीं करते, सिर्फ एक ही शेड में पता नहीं कौन सा भाई होता है ।
माँ बनी आयशा राजा खान का रोल काफी छोटा है, जो लगता है कि सिर्फ थोड़े बहुत कॉमेडी के लिए रखा गया है । महिला के हक़ और मेल डोमिनटेड सोसाइटी पे उसकी जीत की कहानी कहने वाली इस फ़िल्म में फ़िल्म की दूसरी महिला किरदार को न के बराबर भाव मिला है।
बायोपिक का म्यूजिक रोंगटे खड़े कर देने वाला होनी चाहिए, लेकिन अमित त्रिवेदी की इस फ़िल्म में एक भी गाना या बैकग्राउंड स्कोर ऐसा कर पाने में असफल रहा है । कुल मिला कर ये फ़िल्म बायोपिक के ताबूत में एक और कील है, एक और अच्छी कहानी वेस्ट।
सच में मैं चाहता था कि फ़िल्म में कुछ ऐसा देखने को मिल जाये जिसकी मैं जम के तारीफ करता पर कर नहीं पाया। शायद समय ही ऐसा है।