फ़िल्मः कड़वी हवा
निर्देशकः नील माधब पांडा
लेखकः नितिन दीक्षित
कलाकारः संजय मिश्रा, रणवीर शौरी, तिलोत्तमा शोम, भूपेश सिंह
हिंदुस्तानी सिनेमा में जलवायु परिवर्तन का विषय तकरीबन अछूता है. कथित मुंबईया रचनाशील लोगों के लिए जलवायु में बदलाव ज्यादा से ज्यादा मुंबई में आई बाढ़ की विभीषिका से जुड़ी प्रेम कहानी हो सकती है.
जो विषय बिकाऊ न हो उस पर सिनेमा बनाना कई कारणों से हिंदी सिनेमा ने पहले ही छोड़ दिया. ज़माना बिमल राय का नहीं रहा कि वह किसान का दर्द ‘दो बीघा ज़मीन’ में उतार दें.
बौद्धिक से बौद्धिक फिल्मकार भी इस बरसात के मौसम में पश्चिमी राजस्थान में हुई अधिक बरसात और उत्तर भारत के अपेक्षाकृत सूखे मौसम पर सिनेमाई रचना तो नहीं ही कर पाएगा.
पर सभी ऐसे नहीं है.
एक नाम नील माधब पांडा का है. पांडा पहले भी ‘आइ एम कलाम’ जैसी गजब की फिल्म बना चुके हैं. किसान, किसान आत्महत्या और जलवायु परिवर्तन इन सबको एक साथ एक पटकथा में आए तो फिल्म बनती है ‘कड़वी हवा’.
फिल्म ‘कड़वी’ हवा का कैनवास राजस्थान के धौलपुर के किसी गांव (हालांकि किस्सा बुंदेलखंड का है) का है पर इसके परिदृश्य में एक कथा हौले से ओडिशा में आए चक्रवातों की विभीषिका का कथा भी सामने रखती है. और देश के मालवा, विदर्भ, मराठवाड़ा जैसे इलाकों के किसानों की आसमान में टकटकी लगाए नजरों का प्रतिनिधित्व ‘कड़वी हवा’ में है.
पर प्रतिनिधि किस्सा बुंदेलखंड का है (इसे फिल्म में राजस्थान का बताया गया है) जहां पिछले डेढ़ दशक से बादलों ने बेरुखी दिखाई है. फसलें चौपट हुई हैं और किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्या की है.
जिस देश में खेती-किसानी उस बदनाम वीडियो गेम ब्लू ह्वेल जैसा हो, जिसे खेलने वाला आखिर में मौत को गले लगाता है, वहां कड़वी हवा फिल्म को समीक्षकों की सराहना मिलनी तय थी. इसका क्राफ्ट उम्दा है पर विषय इतना कड़वा कि दर्शक कम ही मिले.
पर ‘कड़वी हवा’ एक बुजुर्ग अंधे किसान के डर का किस्सा है कि वह हर रोज इसी दहशत के साए में जीता है कि कहीं कर्ज से लदा-फदा उसका बेटा आत्महत्या न कर ले.
‘कड़वी हवा’ संजय मिश्रा के करियर की सबसे उम्दा फिल्मों में से एक है. मिश्रा दो कौड़ी की फिल्मों में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं, और ‘कड़वी हवा’ की तो माशा अल्लाह गजब की कसी हुई पटकथा है.
इससे पहले अगर आपने मिश्रा को ‘आंखों-देखी’ जैसी एक और शानदार फिल्म में देखा होगा, तो ‘कड़वी हवा’ उससे आगे के संजय मिश्रा को पेश करने वाली फिल्म है.
‘कड़वी हवा’ के तकरीबन हर फ्रेम में संजय मिश्रा मौजूद हैं और क्या गजब तरीके से हैं. इस फिल्म में संजय मिश्रा की प्रतिभा का विस्फोट हुआ है. डेढ़ घंटे की इस फिल्म को देखते हुए आप सोच में पड़ जाएंगे कि आप निर्देशक के काम को कमाल कहें या लेखक को या फिर मिश्रा और रणबीर शौरी के रेंज को.
‘कड़वी हवा’ में संजय मिश्रा अंधे किसान पिता हैं, जो देख तो नहीं सकता. पर हवा की बू उन्हें बहुत कुछ कह जाती है. फिल्म में वह एक पिता हैं, एक कर्जदार किसान हैं…इनके किरदार के अद्भुत शेड्स हैं. संजय मिश्रा यहां सारी सरहदें तोड़ते दिखते हैं.
हेदू नाम के बने मिश्रा के खेत सूखे हैं, बैंक खाते में कर्ज की रकम दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. नितिन दीक्षित की कहानी में वह परिस्थितियां हैं कि आपको लगता है कि एक आत्महत्या तो होनी तय है. अगर आप सजग दर्शक हैं तो इस फिल्म के काले हास्य और तंज को शायद महसूस कर लेंगे.
फिल्म में रणबीर शौरी बैंक के एजेंट बने हैं. उनका काम गांव-गांव जाकर बैंक का बकाया वसूलना है. उससे दहशत खाने वाले किसानों ने उसका नाम यमदूत रख दिया है.
बुंदेलखंड में मैंने कई ऐसे वाकये देखे कि बैंक एजेंटों की जबरदस्ती की वजह से किसान को आत्महत्या करनी पड़ी. फिल्म में एजेंट और किसान दोनों के निजी भय का गजब का मिश्रण है.
शौरी जल्द से जल्द बकाया वसूल करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें तब कमीशन मिलेगा और फिर वह ओडिशा के उस तटीय गांव से अपने परिवार को यहां राजस्थान के इलाके में ला पाएंगे. परिवार का आना इसलिए जरूरी है कि हवा का रुख बदलते ही ओडिशा में चक्रवात आ जाएगा और समंदर के किनारे रहने वाला शौरी का परिवार बेघर हो जाएगा.
हवा का रुख राजस्थान में मिश्रा के सामने जिस तरह अस्तित्व का संकट पैदा कर रहा है वही समस्या ओडिशा में शौरी के परिवार के सामने भी है.
जलवायु परिवर्तन को लेकर फिल्में न के बराबर (और हिंदी में तो शायद यह पहली है) बनी हैं. गंभीर विषय पर ब्लैक ह्यूमर वाली यह फिल्म सलमान के फिल्मों जितनी बड़ी हिट न रही हो, पर शानदार अभिनय और उत्कृष्ट निर्देशन का नमूना है.
मेरी सिफारिश है कि अच्छा सिनेमा देखना चाहने वाले दर्शक इसे जरूर देखें.
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