वर्ष 2009 में मराठी में एक फिल्म आई थी ‘गाभ्रीचा पाऊस’ यानी कमबख्त बारिश. यह फिल्म दर्शाती है कि एक किसान की आत्महत्या के डर के नीचे कैसे कोई परिवार जीता है और किसान को मौत से बचाने की हर संभव कोशिश के बावजूद कोई भरा पूरा परिवार किसान की आत्महत्या के अलावा भी इस सिस्टम में कैसे दम तोड़ सकता है.
बरसात किसान की जिंदगी और उसकी उम्मीदों में हमसे भी कहीं खास जगह रखती है. लेकिन, जब जरूरत से अधिक रूठती है या बरसती है तो वही किसानों के लिए ‘गाभ्रीचा पाऊस’ यानि The Damned Rain बन जाती है. महाराष्ट्र के विदर्भ में कपास यानि सफेद सोना उगाने वाले किसानों पर निर्देशक सतीश मन्वर की इस फिल्म का कथानक सरल और मार्मिक है.
महाराष्ट्र का विदर्भ किसानों की आत्महत्या को लेकर कुख्यात है. यह फिल्म विदर्भ के ही एक गांव के एक छोटे किसान के बारे में है. लेकिन, उसकी कहानी के चित्रण में नाटकीयता के लिए कोई स्पेस नहीं है. फिल्म एक दृश्य से शुरू होती है, जहां एक बच्चा साइकिल चलाता हुआ खेतों के चौड़े रास्ते से गांव की ओर जाता है और उसके पीछे उससे छोटा बच्चा साइकिल चलाने की जिद में चिल्लाता पीछे-पीछे दौड़ रहा होता है. दोनों बच्चे एक जगह आकर रुक जाते हैं. वे देखते हैं कि पेड़ पर एक आदमी की लाश झूल रही होती है. यह महाराष्ट्र के विदर्भ में सूखे की स्थिति, खेती के संकट और कपास उत्पादक किसानों की आत्महत्या का यथार्थ है.
यह शव भास्कर देशमुख नाम के किसान का होता है. जो सूदखोर के कर्ज, लगातार दो साल से अच्छी बरसात न होने और बिजली के भारी बिल के बोझ से घबराकर आत्महत्या कर लेता है. इसके बाद यह फिल्म उसके पड़ोसी और किसान किसना (गिरीश कुलकर्णी) पर केंद्रित हो जाती है, जो एक के बाद एक कई मुश्किल परिस्थितियों में भी कपास की एक अच्छी फसल पाने के लिए बाकी समय तरह-तरह से जूझता दिखाई देता है. फिल्म शब्दों की बजाय दृश्यों से बुनी गई लगती है.

वह उसके छह साल के बेटे दीनू (अमन अत्तर) और सास (ज्योति सुभाष) को हर समय किसना पर नजर रखने और उसकी हर हरकत को बताने के लिए कहती है.
अलका किसना को खुश रखने और उसे परिवार के प्रति आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के जतन करती है. कभी वह बार-बार उधारी पर सामान खरीदकर पुरन-पोली (मराठी व्यंजन) बनाती है तो कभी खुद ही खूब सजकर लुभाने की कोशिश करती है.
किसना में जीने की अदम्य इच्छा-शक्ति है. किसना बाकी किसानों जैसे खेत में लगे एक पेड़ को भी बेचने के लिए राजी नहीं. वह पेड़ ही तो उसके बचपन की कई यादों का मूक गवाह है. किसना के पूर्वजों के पास कभी 40 बीघा जमीन थी. लेकिन, सूदखोरों के जाल में उलझकर जमीन का बड़ा टुकड़ा इस किसान परिवार के हाथ से निकल जाता है और किसना के पास रह जाती है महज सात बीघा जमीन. जिसे बचाने के लिए आखिर किसना जेवरों को गिरवी रखकर नागपुर से कपास के बीज खरीदने जाता है.
https://youtu.be/tLSzUN_E8Q4
आमतौर पर बरसात के दृश्य और गीत सिनेमा में रोमांस दर्शाने के लिए इस्तेमाल में लाए जाते हैं. लेकिन, इस मामले में यह फिल्म एक किसान की जिंदगी और मौत की जद्दोजहद को सामने रखती है और बताती है कि आम भारतीय किसान का जीवन किस तरह आज भी बरसात पर ही निर्भर है. इस फिल्म में भी जब मानसून की देरी से बीज खेत में फूट नहीं पाते है तब अलका बाकी जेवर भी बेचकर और बीज खरीदने में मदद करती है. नई फसल आने पर दीपू नई शर्ट का सपना पाल चुका होता है. लेकिन, फिर एक बार बरसात की अनियमितता से परिवार के हिस्से सिर्फ दो क्विंटल कपास आता है, जिसे भी कपास व्यापारी/सूदखोर पुराना कर्ज चुकता करने के एवज में घर से जबरन उठा ले जाता है. सारे के सारे फिर खाली रह जाते हैं.
यहां तक भी किसना का साहस जवाब नहीं देता है. वह शहर के एक बैंक जाता है और कर्ज लेकर बोर-वेल खुदवाता है. लेकिन, बिजली की अनियमित आपूर्ति न होने से उसका बोर-वेल काम नहीं करता है.

कलेजा मुंह को तब आ जाता है जब फिल्म के अलग-अलग दृश्यों में दीनू आत्महत्या करने वाले हर किसान के अंतिम-संस्कार के दौरान शवों के नीचे चुपके से सिक्कों को उठा-उठाकर जमा करता जाता है. और फिल्म के अंतिम दृश्य के एक दृश्य पहले उसी के पिता के शव के नीचे सिक्के रखे जाते हैं.
आखिरी दृश्य में घर के आंगन में अलका फुट-फूटकर रो रही होती है. लेकिन, निर्देशक ने उसके रोने की आवाज बंद करा दी है. इसलिए, हम उसका रुदन भी नहीं सुन सकते.
मराठी फिल्म ‘सैराट’ के आख़िरी दृश्य की तरह ही यहां भी सारी आवाजें गायब. फर्क इतना ही कि ‘सैराट’ में मासूम बच्चा रो रहा होता है और यहां किसान की गर्भवती विधवा. आखिर दृश्य जैसे पिछले सभी दृश्यों और बैकग्राउंड ध्वनियों को एक-दूसरे से साधे हुए गुजर रहा हो. और जैसे हम भी मूक दर्शक बनकर रह गए हो.